मंगलवार, 24 जुलाई 2012

गुरु हरकिशन साहेब जी


आज गुरु हरकिशन साहेब जी का जन्मदिन है 


गुरु हरकिशन जी महाराज सिख धर्म के आठवें गुरु  

8 वर्ष की अल्प आयु में ही गुरु हरकिशन साहेबजी को गुरुगद्धी  प्राप्त हुई  

गुरु हर किशन साहेबजी का जनम सावन सुदी 10 ( 8 वां सावन )विक्रम संवत 1713 (7जुलाई  1656) को किरतपुर साहेब में हुआ था ...आप गुरु राय साहेबजी और माता किशन कौर के दुसरे बेटे थे ...8 वर्ष की छोटी -सी आयु में ही आपको गुरु गद्दी प्राप्त हुई ...


गुरु हररायजी ने 1661 में गुरु हरकिशन जी को आठवी पादशाही  गुरू के रूप में सोपी ..बहुत ही कम समय में गुरू हर किशन साहिब जी ने सामान्य जनता के साथ अपने मित्रतापूर्ण व्यवहार से राजधानी में लोगों में  लोकप्रियता हासिल की। इसी दौरान दिल्ली में हैजा और छोटी माता जैसी बीमारियों का प्रकोप महामारी लेकर आया। मुगल राज जनता के प्रति असंवेदनशील था । जात- पात एवं ऊंच नीच को दरकिनार करते हुए गुरू साहिब ने सभी भारतीय जनों की सेवा का अभियान चलाया। खासकर दिल्ली में रहने वाले मुस्लिम उनकी इस मानवता की सेवा से बहुत प्रभावित हुए एवं वो उन्हें बाला पीर कहकर पुकारने लगे। जनभावना एवं परिस्थितियों को देखते हुए औरंगजेब भी उन्हें नहीं छेड़ सका। परन्तु साथ ही साथ औरंगजेब ने राम राय जी को शह भी देकर रखी, ताकि सामाजिक मतभेद उजागर हों।

दिन रात महामारी से ग्रस्त लोगों की सेवा करते करते गुरू साहिब अपने आप भी तेज ज्वर से पीड़ित हो गये... छोटी माता के अचानक प्रकोप ने उन्हें कई दिनों तक बिस्तर से बांध दिया...जब उनकी हालत कुछ ज्यादा ही गंभीर हो गयी तो उन्होने अपनी माता को अपने पास बुलाया और कहा कि उनका अन्त अब निकट है.... जब लोगो ने कहा की अब गुरुगद्दी पर कौन बैठेगा तो उन्हें अपने उत्तराधिकारी के लिए केवल 'बाबा- बकालाका नाम लिया... यह शब्द केवल भविष्य गुरूगुरू तेगबहादुर साहिबजो कि पंजाब में ब्यास नदी के किनारे स्थित बकाला गांव में रह रहे थे,.....के लिए प्रयोग किया था...जो बाद में गुरुगद्दी पर बैठे और नवमी पातशाही बने...

अपने अन्त समय में गुरू साहिब सभी लोगों को निर्देश दिया कि कोई भी उनकी मृत्यू पर रोयेगा नहीं। बल्कि गुरूबाणी में लिखे शबदों को गायेंगे। इस प्रकार बाला पीर चैत सूदी १४ (तीसरा वैसाख) बिक्रम सम्वत १७२१ (३० मार्च १६६४) को धीरे से वाहेगुरू शबद् का उच्चारण करते हुए गुरु हरकिशनजी ज्योतिजोत समा गये।

दसवें गुरू गोविन्द साहिब जी ने अपनी श्रद्धाजंलि देते हुए अरदास में दर्ज किया कि :---

श्री हरकिशन धियाइये, जिस दिट्ठे सब दुख जाए।'
(यानी ...इनके नाम के स्मरण मात्र से ही सारे दुःख दूर हो जाते है )

दिल्ली में जिस आवास में वो रहते थे ..आज वहाँ एक शानदार ऐतिहासिक गुरुद्वारा बन गया है जिसे सब श्री बंगला साहिब गुरूद्वारे के नाम से जानते है ...

गुरुद्वारा बंगला साहेब ..दिल्ली

बाबा अटल भाई साहेब गुरद्वारा ..... अमृतसर

रविवार, 3 जून 2012

दसवी पातशाही गुरु गोविन्दसिंध जी





गुरु गोविंदसिंह जी 



जन्म ---22 दिसंबर 1666 ई.  
ज्योति -ज्योत--7 अक्तुम्बर 1708 ई. 

आज के भौतिक युग में अपने बहु संख्यक होने के कारण देश के शासन -प्रशासन  में अपना प्रभुत्व कायम हो जाने के  कारण हमारे वर्तमान शासक गुरु गोविंद सिंह जी और उनके निर्मल खालसा -पंथ के अनगिनत परोपकारो को भूलते जा रहे हैं ---इसका सबसे बड़ा प्रमाण नवम्बर 1984 में उस समय की सताधारी पार्टी द्वारा  पूर्व नियोजित निर्मम सिक्ख  नरसंहार और सिक्ख स्त्रियों को बहुत बड़े स्तर पर अपमानित किए जाने की दुखद धटना क्रम को लेकर देखा जा सकता हैं--इस शासक पार्टी के कुछ नेताओ ने देश की राजधानी दिल्ली  में अपने नेतत्व में हजारो सिक्खों का कत्लेआम कराया --हमारा तथाकथित लोकतांत्रिक सिस्टम तथा इसकी निष्पक्ष  न्यायपालिका आज तक किसी भी दोषी को दंडित नहीं कर सकी  हैं ----????

ऊपर से देश के वर्तमान गुहमंत्री सिक्खों को नवम्बर 84 का सिक्ख कत्लेआम भूल जाने का मशवरा दे  रहे हैं ? यह कैसी  विडंबना हैं ?     
यह श्री गुरु गोविंद सिंह जी और उनके खालसा -पंथ के परोपकारो का  कैसा सिला हैं ??
जिस धर्म की रक्षा के लिए उन्होंने अपने पुरे परिवार का  बलिदान किया --आज उन्ही की बनाई हुई कौम को अपनी पहचान बनाए रखने में कई संकटों का सामना करना पड रहा हैं ---


देश यह सच्चाई भूल चूका है की मात्र ९ बर्ष की आयु में गुरूजी ने हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए अपने पिता गुरु तेगबहादरजी को बलिदान के लिए प्रेरित किया था ---जब मुग़ल साम्राज्य की फौजे 'करो या मरो' की तर्ज पर हिन्दुओ को मार -मार कर मुसलमान बना रही थी ,तब कश्मीर के ब्राहमण गुरू तेग बहादर जी के दरबार में याचिका लेकर पहुंचे और दया की गुहार लगाईं --अपने धर्म का वास्ता दिया तब गुरूजी ने कहा की ----'जाओ,उनसे कहो की पहले हमारे गुरु  का धर्म परिवर्तित करो --फिर हम अपना धर्म बद्लेगे !'   

इस तरह अपना शीश देने वो दिल्ली चल पड़े --चांदनी -चौक  पर उन्होंने अपना शीश देश और  कौम की खातिर निछावर किया --जहाँ उनका शीश  काटा  था वहां आज गुरुद्वारा( शीशगंज साहेब) बना हैं --




(गुरुद्वारा शीशगंज साहेब , देहली )


( और यह हैं ८४ के दंगो के टाइम जलता हुआ शीशगंज गुरुद्वारा )   


( जुल्म करते मुग़ल सैनिक  और सहते निरह सिक्ख ) 
  
पिता के बलिदान के समय गुरूजी की आयु महज ९  साल की ही थी --इस अल्प आयु में ही गुरूजी ने युध्य  विधा में पारंगत हासिल की --कई लड़ाईयां उन्होंने लड़ी ---आंनदपुर साहिब में अपना ठिकाना बना कर वो अपने आने वाले मुरीदो को कहते थे की मेरे  लिए नजराने लाना हो तो माया  (पैसे )  नहीं शास्त्र और घोड़े लाए --उन्होंने  फौज भी इक्कठा करनी शुरू कर दी --
गुरूजी के  चार बेटे थे --चारो होनहार ---!


( गुरूजी के चारो पुत्र ) 



गुरूजी ने अनेक  लड़ाईयां लडी --उस समय औरंगजेब बादशाह था --शाही सेना ने बहुत उत्पात मचा रखा था --गुरूजी का भंगानी का युध्य ,चमकौर और मुक्तसर का युध्य और आनंद साहेब का युध्य प्रसिध्य हैं ---  चमकौर  की कच्ची गडी में गुरूजी ने ४० सिक्खों की फौज के साथ जिस हिम्मत और दलेरी से दस लाख मुग़ल शाही सेना से टक्कर ली ,ऐसी मिसाल इतिहास में कही नहीं मिलती --       

                   
(युध्य में वीरता से लड़ते गुरु गोविन्द सिंह जी )
चित्र --गुरुद्वारा हजूर साहेब 


(युध्य   का  मैदान --चित्र गुरुद्वारा हजूर साहेब) 

( दोनों साहिबजादों  के  साथ युध्य में जाते हुए---चित्र गुरुद्वारा हजूर साहेब .)


युध्य में  शानदार विजय प्राप्त की पर चमकौर की लड़ाई में गुरूजी के दोनों बड़े पुत्र शहजादा अजीतसिंह और शहजादा जुझार सिंह वीरगति को प्राप्त हुए ---दोनों छोटे पुत्रो को माता गुजरी जी अपने साथ पुराने सेवादार गंगू के घर ले गई --इस सेवादार ने लालच में आकर धोखे से दोनों बालको को कोतवाल को पकडवा दिया --जिसने सरहिंद के सूबेदार वजीर खां के हवाले कर दिया --वजीर खां गुरु जी से बहुत जलता था उसने दोनो छोटे साहिबजादों शहजादे जोरावर सिंह और शहजादे फतेहसिंह  को नीवं में जिन्दा चुनवा दिया -- दोनों बालक बहुत छोटी उम्र में ही शहीद हो गए --माताजी से यह देखा नहीं गया वो स्वर्ग सिधार गऐ------


(दोनों साहिबजादों के साथ माता गुजरीजी  --जंगल -जंगल भटकते हुए) 
चित्र --गुरुद्वारा हुजुर साहेब


( माता गुजरीजी  और दोनों साहेबजादो को  बुर्ज में कैद किया हुआ था ) 
चित्र --गुरुद्वारा हुजुर साहेब 



( जिन्दा दिवार में चुनते हुए छोटे साहिबजादो को )
चित्र --गुरुद्वारा हुजुर साहेब 


(सिक्ख फौजों  को बन्दुक चलाने की तालीम देते हुए दसवे पातशाह )
चित्र --गुरुद्वारा हुजुर साहेब

अपने चारो बच्चो की मौत की खबर सुनकर गुरूजी बहुत क्रोधित हुए -- हैरान और दुखी हो उन्होंने  औरंगजेब  को बहुत लानते दी और दहाड़ते हुए बोले --'क्या हुआ गीदड़ के धोखे से शेर  के चार लाल खो चुके हैं .परन्तु शेर अभी जिन्दा हैं ,जो की बदला लेकर रहेगा "


तब उन्होंने गुस्से में औरंगजेब  को एक चिठ्ठी लिखी --जिसे 'जफरनामा ' कहा गया --यह  पत्र फारसी लिपि में था जफरनामा यानी जीत का पत्र------

"चार मुए तो क्या हुआ 
जीवन कई हजार "


          " यानी मेरे चार बच्चे नहीं हैं तो क्या हुआ --
मेरे चार हजार बच्चे अभी भी जीवित  हैं"

ऐसे वचन कहना हर किसी के बस  की बात नहीं हैं ---उन्होंने औरंगजेब को ललकार कर कहा की --"तेरा कर्म लूटना और धोखा -फरेब हैं पर मेरी राह सच्चाई की हैं  --तुने अपने ही भाईयो का खून पिया हैं --तू जल्लाद हैं"
कहते हैं की औरंगजेब  इस पत्र को पढ़कर खूब तडपा-- उसकी तडप को मीर मुंशी जी कुछ यु लिखते हैं :---

"मुझे अपना पता नहीं गुनाह बहुत किये हैं,
मालुम नहीं किस सज़ा में गिरफ्तार हूँगा !"


तब औरंगजेब गुरूजी से मिलने को तडपने लगा --उसने गुरूजी से मिलने की इच्छा प्रकट की; उस समय औरंगजेब  दक्षिण में मराठो से युध्य कर रहा था--- तब गुरूजी उससे मिलने दक्षिण की और चल पड़े .----


(अपने बच्चो के लिए व्याकुल गुरूजी --जंगलो में भटकते हुए )
  


अभी  गुरूजी राजस्थान ही पहुंचे थे की औरंगजेब  की म्रत्यु का समाचार उन्हें मिला --दक्षिण के छोटे से गाँव खुलताबाद में इस सदी का सबसे बेरहम ज़ालिम बादशाह औरंगजेब का अंत हुआ --

"दो फूल भी मज़ार पे उनके नहीं फलक ,
                        लेकर जमीं जिन्होंने हजारों बनाए बाग़ !"      -अज्ञात 


  अपने जीवनकाल में जिसने अनेक जुल्म ढाए --ऐसे बादशाह का यू  लाचारी में अंत हुआ ..-...हर अत्याचारी का एक न एक दिन अंत होता ही है ---? १९८४  में मारे गए सिक्खों का लहू भी चित्कारेगा --और उन्हें  मारने वाले कभी चैन से नहीं रह पाएगे -- क्योकि इस अदालत के ऊपर भी एक और अदालत हैं--जहाँ इंसाफ होता हैं -----  




( ऐसे होनहार और जुझारू कौम को मेरा सत -सत नमन ) 
मुझे गर्व हैं की मैने इस कौम में जनम लिया 



ऐसे गुरु को बल -बल जावा  





गुरुवार, 31 मई 2012

गुरु नानकदेवजी...

पहले गुरु 
गुरु नानकदेव जी
545--प्रकाश -उत्सव 



(गुरु नानक देव जी एक दिव्य ज्योति )





गुरू नानकदेवजी सिख पंथ के प्रथम गुरु कहलाते हैं --आपका जन्म कार्तिक पूर्णमासी के दिन 15 अप्रैल 1469 को पंजाब के तलवंडी नामक गाँव  में हुआ ---( जो आजकल पाकिस्थान  में चला गया हैं --जिसे हम लोग ननकाना- साहेब के नाम से जानते हैं ) आपजी की माताजी का नाम तृप्ता जी था पिताजी कल्याणचंद  एक किसान थे !आपजी की एक बड़ी बहन भी थी जिनका नाम बीबी नानकी जी था !

नानक देवजी ने एक ऐसे समय जनम लिया था जब भारत में कोई शक्तिशाली संगठन नहीं था --विदेशी आक्रमणकारी देश को लुटने में लगे थे --धर्म के नाम पर अंध विश्वास और कर्मकांडो का बोलबाला था ऐसे समय में भाई गुरुदास जी ने लिखा हैं ---

" सतगुरु नानक प्रगटिया,मिटी धुंध जग चानण होआ 
 ज्यूँ कर सूरज निकलया,  तारे छुपे अंधेर पलोआ --!" 
    
( जन्म-उत्सव *** गुरुनानकदेव जी का ) 


नानकदेवजी के जन्म के समय प्रसूति गृह एक अलोकिक ज्योति से भर गया था --शिशु के मस्तक के आसपास तेज प्रकाश फैला हुआ था --चेहरे पर असीम शांति थी --माता -पिता ने  बालक का नाम 'नानक' रखा  


  
(ननकाना साहेब गुरुद्वारा ,   पाकिस्तान )
गुरु नानकदेवजी का जन्म स्थान 


(गुरुद्वारा पंजा साहेब ---पाकिस्थान) 


(अपने हाथ  के पंजे से भारी शिला को रोकते हुए --गुरु नानक देव जी )  
(आज यहाँ पंजा साहेब गुरुद्वारा बना हैं )

(गुरु नानकदेवजी के हाथ का पंजा आज भी  ज्यो का त्यों बना हैं )
गुरुद्वारा --पंजा साहेब 
  
हिन्दू -धर्म के अन्दर ऊँच -नीच का भेदभाव बहुत गहराई  लिए हुए था --जब आपजी ने देखा तो अपने उपदेशो से सामजिक ढांचे को एक सूत्र में बाँधने का प्रयास किया --अपनी सरल भाषा मेंसबको समझाया की इंसान एक दूसरेका भाई हैं --ईश्वर सबका परमात्मा हैं ,पिता हैं | फिर एक ही पिता की संतान होने के कारण हम सब सामान हैं -----

"अव्वल अल्लाह नूर उपाया , कुदरत के सब बन्दे !
एक नूर ते सब जग उपज्या ,कौन भले कौन मंदे !! " 

आप महान संत.कवी,दार्शनिक और विचारक थे --अपने उपदेशो को उन्हीने खुद अपने जीवन में अमल किया --उन्होंने वर्गभेद मिटाकर 'लंगर'प्रथा शुरू की जो आज भी कायम हैं | गुरुद्वारों में आज भी जाति- भेद मिटाकर सभी एक ही पंक्तियों में खाना खाते हैं --अपनी यात्राओ के दौरान हर व्यक्ति का आतिथ्य स्वीकार करते थे --
मरदाना जो निम्न जाति के थे आप उन्हें अपना अभिन्न अंश मानते थे और हमेशा 'भाई' कह कर संबिधित करते थे --इस तरह आपने हमेशा भाई चारे की नींव रखी -----




( जाति -भेद मिटाकर एक ही पंक्तियों में लगंर की प्रथा चलने वाले गुरुनानक देव जी )

बचपन से आपजी प्रखर बुध्धि वाले थे --पढने लिखने मैं आपका मन नहीं लगता था --7-8 साल तक ही स्कुल गए फिर अपना सारा समय चिंतन और सत्संग में ही व्यतीत करने लगे --पिताजी ने 19 वर्ष की उम्र में आपकी शादी करवा दी। आपका विवाह मूलराम पटवारी की कन्या सुलक्षणाजी  से हुआ।गुरुद्वारा कंध साहिब- बटाला (गुरुदासपुर) गुरुनानकदेवजी  का यहाँ बीबी सुलक्षणा से 18 वर्ष की आयु में संवत्‌ 1544 की 24वीं जेठ को विवाह हुआ । यहाँ गुरु नानकदेव जी  की विवाह वर्षगाँठ पर प्रतिवर्ष उत्सव का आयोजन होता हैं आपजी के दो पुत्र हुए--भाई श्री चंद जी और भाई लक्ष्मीचंद जी--जिन्होंने बाद में उदासी -मत चलाया---


(यात्रा -के  दौरान भाई मरदाना के साथ )

वैराग जीवन जीने वाले को कहाँ परिवार की जंजीरे रोक पाई हैं --एक रात  नदी में स्नान करते हुए आपको प्रेरणा हुई की उनको ये मोह-माया त्यागकर के संसार में आने का अपना मकसद पूरा करना चाहिए --इसके बाद वो घर लौट कर नहीं गए --अपने ससुर को अपने परिवार की  जुम्मेदारी सौपकर यात्रा पर निकल पड़े --अपने मुसलमान शिष्य मरदाना के साथ सन 1507 में धर्म प्रचार के लिए कई यात्राए की !भारत के हर कोने में उनकी यात्राए होती हुई अफगानिस्तान,अरबदेश ,फारस के कई स्थानों में सम्पन्न हुई --  
   

    


 गुरु  नानकदेव जी सर्वेश्वरवादी थे। मूर्तिपूजा को उन्हांने निरर्थक माना। रूढ़ियों और कुसंस्कारों के विरोध में वे सदैव तीखे रहे। ईश्वर का साक्षात्कार, उनके मतानुसार, बाह्य साधनों से नहीं वरन् आंतरिक साधना से संभव है। उनके दर्शन में वैराग्य तो है ही साथ ही उन्होंने तत्कालीन राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक स्थितियों पर भी नजर डाली है। संत साहित्य में गुरु नानकजी  अकेले हैं, जिन्होंने नारी को बड़प्पन दिया है---

"एक दिन बालक नानक को पिताजी ने कुछ पैसे दिए सौदा लाने के लिए --नौकर के साथ जब बालक नानक सौदा लेने जा रहे थे तो रास्ते में  कुछ भूख से पीड़ित साधुओं को बालक नानक  ने उन रुपयों से खाना खिला दिया और लौट आए ,जब पिताजी ने पूछा की सौदा कहाँ हैं तो बालक नानक बोले की आज मैनें   सच्चा सौदा किया हैं "--पिताजी उनके कथन से विस्मय रह गए --

गुरु नानकदेवजी एक अच्छे कवि भी थे। उनके भावुक और कोमल हृदय ने प्रकृति से एकात्म होकर जो अभिव्यक्ति की है, वह निराली है। उनकी भाषा बहते हुए पानी की तरह थी -- जिसमें फारसी, मुल्तानी, पंजाबी, सिंधी, खड़ी बोली, अरबी, संस्कृत, और ब्रजभाषा के शब्द समाए हुए थे --




एक ओंकार 

मूलमंत्र :--  गुरु ग्रन्थ साहेब की वाणी का आरम्भ मूल मन्त्र से होता हैं -यह मूलमंत्र हमें उस परमात्मा की परिभाषा बताता हैं जिसकी सब अलग -अलग रूप में पूजा करते हैं :----




  "एक ओंकार सतनाम करता पुरख निरभऊ निरवैर अकाल मूरत अंजुनी स्वेम्भ गुरु प्रसाद"

एक ओंकार --परमात्मा एक हैं !
सतनाम --परमात्मा का नाम सच्चा हैं !हमेशा रहने वाला हैं !
करता पुरख --वो सब कुछ बनाने वाला हैं !
निरभऊ -- परमात्मा को किसी का डर नहीं हैं !
निरवैर -- परमात्मा को किसी से वैर (दुश्मनी) नहीं हैं !  
अकाल मूरत --परमात्मा का कोई आकार नहीं हैं !
अंजुनी --वह जुनियो (योनियों ) में नहीं पड़ता !न वह पैदा होता हैं ,न मरता हैं !
स्वेम्भ-- उसको किसी ने नहीं बनाया --न पैदा किया हैं वह खुद प्रकाश हुआ हैं !   
गुरु प्रसाद --गुरु की कृपा से परमात्मा सबके ह्रदय में बसता हैं --!




   
(गुरु नानकदेव जी के साथ बाला -मरदाना) 


गुरु नानक देव जी की दस शिक्षाए :---

१.ईश्वर एक हैं !
२.सदैव एक ही ईश्वर की अराधना करो !
३.ईश्वर सब जगह और हर प्राणी में मौजूद हैं !
४.ईश्वर की भक्ति करने वालो को किसी का भी नहीं रहता !
५.ईमानदारी से और मेहनत करके उदरपूर्ति करनी चाहिए !
६.गुर कार्य करने के बारे में न सोचें और न किसी को सताए !
७.सदैव प्रसन्न रहना चाहिए --ईश्वर से सदा अपने लिए क्षमा मंगनी चाहिए !
८.मेहनत और ईमानदारी की कमाई में से जरूरत मंद को भी कुछ देना चाहिए !
९.सभी स्त्री -पुरुष बराबर हैं !
१०.भोजन शरीर को जिंदा रखने के लिए जरूरी हैं पर लोभ -लालच के लिए संग्रहव्रती बुरी हैं !   


जीवन भर धार्मिक यात्राओ के माध्यम से बहुत से लोंगो को सिख -धर्म  का अनुयायी बनाने के बाद गुरु नानकदेवजी ने रावी नदी के तट पर स्थित अपने फार्म पर अपना डेरा जमाया और 70 वर्ष की साधना के पश्चात् सन 1539 ई. में परम ज्योति में विलीन हो गए .....



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